- मुफ्त राशन और मनरेगा ने पहाड़ियों को बर्बाद कर दिया
- 20 साल में एक लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि हो गयी बंजर
सीएम पुष्कर धामी ने एक दिन पहले प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत अन्नोत्सव का आगाज किया। 14 लाख नि:शुल्क राशन किट बांटी जाएंगी। विचारणीय बात है कि दस महीने से किसान सड़कों पर हैं। भाजपा सरकार के मंत्री के बेटे अन्न उपजाने वाले किसानों को अपनी कार से रौंद रहे हैं और वो अन्नोत्सव कर अपना वोट साध रहे हैं। क्या ये ही है राजनीति? खैर, बात अभी निकम्मे और भिखारी बनते पहाड़ियों की।
आप गढ़वाल या कुमाऊं के किसी भी गांव या छोटे कस्बे में चले जाइये। वहां आपको महिलाएं काम करती मिल जाएंगी और पुरुष और युवा गांव की चौपाल या बाजार में ताश खेलते मिल जाएंगे। दोपहर के बाद नशे में। कामचोरी इतनी है कि सड़क से गांव तक 30 किलो का गैस सिलेंडर ले जाने के लिए भी डुटयाल पर निर्भर हो गये हैं। अब गांवों में किचन गार्डन रूपी खेती हो रही है, यानी घर के आसपास के खेतों में शौकिया फसल उगाई जा रही है। इसमें भी डुटयालों की अहम भूमिका है। अधिकांश पहाड़ियों ने खेती छोड़ दी है। बंदर और वन्य जीवों की दस्तक का हवाला देते हुए। थैली का दूध गांव पहुंच जाता है तो भैंस 100 गांवों में भी नहीं दिखती। गाय पालना भी बोझ लगता है। यहां तक कि मरने के बाद श्मशान तक लकड़ी पहुंचाने का काम भी डुटयाल कर रहे हैं।
अब कौन दावा करता है कि हम पहाड़ी हैं। स्वाभिमानी हैं। मेहनती हैं। सच यह है कि हम पहाड़ी निकम्मे और भिखारी बनते जा रहे हैं। राज्य गठन के समय कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था। जो वर्तमान में घट कर 6.73 लाख हेक्टेयर है। इन आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में 97 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि में कमी आई है। कारण, राशन की दुकानों में नि:शुल्क राशन मिल रहा है। दो रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल मिल रहा है। मनरेगा के तहत अपने ही खेत में गड्ढे खोदने के पैसे मिल रहे हैं। डांडा में बाढ़ सुरक्षा दीवार के लिए पैसे मिल रहे हैं।
क्या पहाड़ में पहले वानर, सूअर, भालू या नील गाय नहीं थे? थे तो, लेकिन तब गांव में सहकार की भावना थी। पतरोल सिस्टम था। गांव के लोग मेहनती थे। खेती होती थी, पशुपालन होता था और वनों से नाता था। तब हम नहीं मानते थे कि जंगल सरकारी हैं। पहाड़ी तब इतना सुविधाभोगी नहीं था। कभी सुना कि पहाड में कोई भूख से मरा? कभी नहीं। कारण, ग्रामीणों में आत्मीयता थी। गरीबी थी लेकिन एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी थे। गरीब लोग गांव के अन्य लोगों के काम में हाथ बंटाते थे और बदले में अनाज पाते थे। हरिजन भी भीख नहीं मांगते थे। काम के बदले अनाज और पैसे लेते।
लेकिन सरकारों ने पहाड़ियों का स्वाभिमान खत्म कर दिया और सोचने की शक्ति भी। आश्चर्य तो तब होता है कि पहाड़ के हर घर से कोई बेटा देशरक्षा में तैनात है लेकिन राष्ट्रवाद और देशभक्ति का पाठ हम उन नेताओं से सीख रहे हैं जिनके खानदान का कोई व्यक्ति न तो आजादी के लिए लड़ा न देश रक्षा के लिए सीमाओं पर तैनात है।
दरअसल, सरकारों ने मनरेगा और मुफ्त राशन योजना दी और धीरे-धीरे हमारा स्वाभिमान मरता गया। हम अकर्मण्य हो गये। हमें बहाने सूझने लगे। हम सुविधाभोगी हो गये। सोचने लगे कि सब मेहनत हम ग्रामीण ही क्यों करें? हमें भी शहरों की तर्ज पर चमक-दमक न सही, ठाट से जीने का अधिकार है। सकारात्मक पलायन सही है, लेकिन दस हजार की नौकरी के लिए शहरों का रुख कर रहे हैं। हम पहाड़ी नकलची बंदर बन कर रह गये हैं और हंस की चाल चलने की कोशिश में अपनी चाल भी भूल गये। हां, हम पहाड़ी अब स्वाभिमानी और मेहनती नहीं रहे। हमारी सरकारों ने हमें निकम्मा और भिखारी बना दिया है और हम नेताओं की चाल में फंसकर वैसे ही बन रहे हैं। ऐसे में हमारी राज्य अवधारणा और शहीदों क सपने साकार कैसे होंगे? सावधान पहाड़ियो, जागो।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]