एक महिला स्वीपर की करुण दास्तां

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  • 16 साल की नौकरी में वेतन 2800 से बढ़कर हुआ महज 10 हजार
  • नेताजी, ये जो तुम विकास के दावे करते हो, आंकड़े दिखाते हो, वह बाजीगिरी है, फरेब है, तुम्हारा नंगापन है, और कुछ नहीं।

कल रात की बात है। नामी-गिरामी निजी हास्पिटल में दाखिल अपने एक परिजन को खाना देने गया। आईसीयू के बाहर बैठा अपनी बारी आने का इंतजार कर रहा था कि लगभग 60 साल की एक महिला आकर मेरे बगल में बैठ गई। बाल पूरी तरह से सफेद हो गए थेे। चेहरा उम्र से भी अधिक वक्त के थपेड़ों के चलते झुरियों से भरा हुआ था। यह एक महिला स्वीपर है और नाइट शिफ्ट करती है। सफाई के साथ ही मरीजों के डाइपर बदलने का काम भी। पूरे 12 घंटे काम करती है। मैंने कहा कि शिफ्ट बदलती रहती होंगी। बोली, नहीं, मैं नाइट शिफ्ट में ही काम करती हूं। दिन में घर संभालती है।
मैंने पूछा कि कब से काम कर रही हो। जवाब मिला, 16 साल से। मैंने उत्सुकता से पूछा, इसी अस्पताल में। बोली, नहीं, यहां तो कोरोना काल में आई। पहले एक पैरामेडिकल कालेज मंें थी। मैंने कुरेदा तो पुराने घावों से दर्द रिसने लगा। बोली, मैं सरदारनी हूं। सरदारी अपने घर में ही काम करती हैं, स्वरोजगार करती हैं, लेकिन नौकरी नहीं करती। पति ड्राइवर था और बीमार रहने लगा। घर की माली हालत खराब थी। एक बेटा और दो बेटियों के साथ ही घर चलाने की जिम्मेदारी भी मुझ पर आ गई।
16 साल पहले जब उसे ठेकेदार ने स्वीपर की नौकरी दी तो उस वक्त उसका वेतन 2800 रुपये था। साल दर साल बीते, कभी 200 रुपये बढ़े तो कभी 100 रुपये। आज उसे 10 हजार वेतन मिलता है लेकिन इस वेतन तक पहुंचने में उसे 16 साल लग गये। इसी वेतन में वह घर का किराया भी देती थी और दो बेटियों की शादी भी की। बेटा अब गार्ड बन गया है। घर खर्च में हाथ बंटा रहा है। घर का किराया अब 5000 हो चुका है। वह कहती है कि महंगाई इतनी बढ़ गई कि आज भी घर मुश्किल से ही चल रहा है।
यह एक महिला के सशक्त होने की कहानी नहीं है, बल्कि एक महिला के उस संघर्ष की भयावह और करुण दास्तां है जो बताती है कि सरकार के प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े 2 लाख 61 हजार रुपये प्रतिवर्ष के आंकड़े झूठे हैं। प्रदेश में महिला मानव श्रम की भागीदारी जिससे कमाई होती है तो वह महज 7 प्रतिशत ही है, तो लखपति दीदी बनाने के आंकड़े भी बाजीगिरी हैं। प्रदेश में महिला नीति नहीं है न ही सर्वे हुआ है कि विधवा, एकल, परित्यागता महिलाएं किस हाल में और कैसे रह रही हैं? न उनका सामाजिक सर्वेक्षण के डाटा उपलब्ध हैं और न ही आर्थिक।
वहीं, विधायकों के वेतन और भत्तों मंे हर महीने सवा लाख रुपये का इजाफा हो गया है। सच यही है कि इस देश में गरीब और गरीब हो रहा है और अमीर और अमीर। नेता, अफसर, दलाल और ठेकेदार मालामाल हो गए हैं और जनता कंगाल। यही सच्चाई है कि आम आदमी आज भी दाल रोटी मेहनत से खा रहा है और नेता अच्छे वेतन के साथ कमीशन का मीट-भात भी खा रहे हैं।
चूंकि इस मेहनतकश और स्वाभिमानी महिला की इस बेशकीमती नौकरी को कोई खतरा न पहुंचे तो मैंने अस्पताल और महिला का नाम उजागर नहीं किया है। इस बहादुर शेरनी सरदारनी के जीवन संघर्ष को सलाम।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

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