पुरस्कारों की उल्टी में दबे ‘शब्दों के रेंगते कीड़े‘

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  • राज्य के हालात पर खामोश हैं डरे हुए साहित्यकार
  • बंद कमरे में दम तोड़ रहा लिखा और परोसा साहित्य

सुना है जल्द ही देहरादून के लेखक गांव में देश-दुनिया के सैकड़ों साहित्यकार जुड़ेंगे। अच्छी बात है। गांव के मालिक डॉ. रमेश पोखरियाल ने 100 से भी अधिक किताबें लिखी हैं। मुझे एक का भी नाम याद नहीं। मैं साल में कम से 50 किताबें पढ़ता हूं। निशंक ने जो इतना लाइब्रेरी साहित्य लिखा है, क्या आम जनता के काम आया? कोई किताब प्रसिद्ध या चर्चित हुई, पता नहीं। मैंने निशंक के कई चहेते पत्रकारों से पूछा कि उनकी कोई पुस्तक का नाम याद हो तो बता दो। कोई नहीं बता पाया, गूगल किया तो एक-दो नजर आई।
दरअसल, उत्तराखंड में साहित्यकार और साहित्य बंद कमरों में ही लिखा-पढ़ा जा रहा है। आम जनता का न उस साहित्य से सरोकार है और न ही साहित्यकार का जनता से। वह खुद ही लिख और छपकर आत्मसंतुष्टि और आत्मगर्व कर डोलता फिर रहा है। ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, पदम और नोबल पुरस्कार चाहता है।
जब भी व्यवस्था पर सवाल की बात होती है तो सब लोग लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी से उम्मीद लगा लेते हैं कि वो फिर लिखेंगे नौछमी नारेण और कमीशन कू मीट-भात। क्या पहाड़ का ठेका महज नेगीदा ने लिया है। और साहित्यकार रबड़ी-मलाई खाएंगे? उनका कोई कर्तव्य नहीं है देश, प्रदेश और समाज के लिए?
क्या आज का साहित्यकार डरा हुआ है या पुरस्कार की उल्टी में दबा है, यदि ऐसा है तो उसे शब्दों का रेंगता कीड़ा ही कहा जा सकता है। मुख्यधारा के पत्रकारों की पूरी जमात डरी-सहमी हुई है। मैं विगत 25 साल कारपोरेट जर्नलिज्म का हिस्सा रहा हूं। इन पत्रकारों की मजबूरी समझ सकता हूं लेकिन साहित्यकारों की क्या मजबूरी है? समझ से परे है। उत्तराखंड का साहित्य समृद्ध रहा है और यहां देश-दुनिया मे नामचीन साहित्यकार हुए हैं।
स्वाधीनता आंदोलन में गौरी दत्त पांडे गौरदा और गुमानी पंत ने कलम से क्रांति लाने का काम किया। चिपको आंदोलन में घनश्याम सैलानी ने जनजागरण अभियान चलाया। नागेंद्र सकलानी के समय भी गुणानंद पथिक ने अपनी कलम से राजशाही की चूलें हिला दी थी। राज्य आंदोलन में जनकवि गिर्दा, जनकवि अतुल शर्मा और लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने खूब आवाज उठाई। शेरदा अनपढ़ की रचनाओं को भला कौन भूल सकता है।
राज्य गठन के बाद जब साहित्यकारों को भटकी सरकारों को राह दिखानी थी तो सब खामोश रहे। नदी बचाओ आंदोलन में जनकवि अतुल शर्मा और सरकारों के भ्रष्टाचार पर नेगीदा के गीतों के अलावा सब खामोश रहे। आज प्रदेश में हाहाकार की स्थिति है। पलायन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, हिमालय, दरकते पहाड़ विकास का अंधानुकरण, अंकिता भंडारी हत्याकांड, महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध और बाहरी लोगों के अतिक्रमण और बिकते पहाड़ों पर गीत और साहित्य दोनों चुप हैं।
बस, द्वितीय पंक्ति के कुछ कवि और लेखक मसलन गिरीश सुंदरियाल, ओमप्रकाश सेमवाल, पयास पोखड़ा, सुनील धंजीर और दो-चार साहित्यकार और कवि और ही बीच-बीच में सरकारों को हलकी-सी पिन चुभो देते हैं। हो सकता है कि मैं कुछ अच्छे साहित्यकारों को भूल रहा हूं तो आप उनका योगदान बता सकते हैं। बाकी सब तो गहरी निंद्रा में हैं या पुरस्कारों की उल्टी में दबे हुए हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

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