लैंसडाउन यदि कालों का डांडा हो जाएगा तो क्या फर्क पड़ेगा?

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  • वीरचंद्र सिंह गढ़वाली के माथे से गद्दार शब्द हटा दो सरकार
  • जनरल खंडूड़ी के गांव मरगदना का नाम बदला पर किस्मत तो फूटी रही

रक्षा मंत्रालय ने ब्रिटिशकाल में छावनी क्षेत्रों की सड़कों, स्कूलों, संस्थानों, नगरों और उपनगरों के रखे गए नामों को बदलने के लिए उत्तराखंड सब एरिया के साथ सेना के अधिकारियों से प्रस्ताव मांगें हैं। स्थानीय स्तर पर लंबे समय से लैंसडाउन का नाम बदलने की मांग होती आ रही है। इस संबंध में रक्षा मंत्रालय को भी पत्र भेजे जा चुके हैं। प्रस्ताव पर अमल हुआ तो लैंसडाउन का नाम बदल कर कालों का डंडा यानी अंधेरे में डूबे पहाड़ रख दिया जाएगा। यह नाम 1890 में ब्रिटिश वायसराय लार्ड लैंसडाउन के नाम से रखा गया। लैंसडाउन में अब गढ़वाल रेजीमेंटल सेंटर है। उत्तराखंड के लोग कालों का डांडा नाम रखने की बजाए यह चाहते हैं कि वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम के आगे गढ़वाल रेजीमेंट में जो गद्दार यानी अनुशासनहीनता का टैग लगा है, उसे हटा दिया जाएं।
दरअसल फौज आर्मी एक्ट से चलती है। किसी भी सैनिक के लिए उसकी पलटन सर्वोच्च होती है। गढ़वाल रेजीमेंट का मूल नारा जय बदरी विशाल है। भारत माता की जय बाद में होती है। यही कारण है कि चाहे उत्तराखंड में तमाम सरकारी योजनाएं या भवनों के नाम वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम से चलती हों, लेकिन सच यही है कि गढ़वाल राइफल्स वाले वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को गद्दार ही मानते हैं। यहां तक जब उनका निधन हुआ तो गढ़वाल राइफल्स ने अंतिम संस्कार में भी भाग नहीं लिया। सरकार चाहे तो वीरचंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर लिखे गये इस शब्द को हटा सकती है। लेकिन नहीं हटाएगी, कारण, फौज में कसम परेड पलटन की होती है। पलटन को अपने सीनियर का आर्डर मानना ही होता है। आर्मी एक्ट में कहा गया है कि यदि सीनियर का आर्डर नहीं मानेंगे तो कोर्ट मार्शल होगा। यानी सीनियर का आर्डर न मानना अनुशासहीनता है। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने पठानों पर गोली चलाने का आदेश नहीं माना। इसलिए वह गढ़वाल राइफल्स के लिए बागी माने गये।
खैर, वैसे भी बता दूं कि लैंसडाउन में बाहरी लोग ने होटल खोल दिये हैं। पर्यटन के नाम पर यहां अययाशी के अड्डे हैं। पुलिस प्रशासन मूक तमाशा देखता है। आसपास के ग्रामीण इन होटलों में चौकीदार और वेटर से अधिक कुछ नहीं बन सके। यह भी विचारणीय है कि चकराता में 22 स्टबलिशमेंट एक्ट लागू है यानी विदेशी वहां नहीं जा सकते, लेकिन लैंसीडाउन में ऐसा नहीं है। कोई भी जा सकता है जबकि हिमालय की रक्षा में गढ़वाली भुल्ला सबसे आगे होते हैं।
लैंसडाउन का नाम बदल भी गया तो इन ग्रामीणों की हालत नहीं बदलेगी। आपको याद तो होगा तत्कालीन सीएम बीसी खंडूड़ी ने अपने मूल गांव मरगदना का नाम बदला। नाम रखा गया श्रीराधा वल्लभपुरम। वहां क्या बदला? क्या वह पहाड़ का मॉडल गांव है? क्या वहां की समस्याएं पहाड़ के अन्य गांवों से कुछ अलग हैं? बेकार की बात है, नाम बदलने से किस्मत नहीं बदलने वाली। गरीबदास का नाम अमीर सिंह रख देने से उसकी भूख नहीं मिटेगी। अच्छी शिक्षा, रोजगार और विकास के अवसर बढ़ेंगे तो नाम में क्या रखा है।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

हरदा ऐसा धरना नौकरियों के सौदागरों के खिलाफ भी देते!

 

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