- विरासत में एक मूल सीट भी नहीं दे सके हरदा
- हरदा को अति महत्वाकांक्षा और अति एकाकीपन ले डूबा
फरवरी 2020 की बात है। मैं हरदा का इंटरव्यू लेने शहनशाही आश्रम के निकट उनके किराए के घर गया था। हरदा घर के अंदर थे। लॉन में उनका एक खासमखास चेला बैठा था और उसके हाथ में थी एक फाइल। फाइल में लिखा था मिशन 2022. दूसरी लाइन थी 750 दिन शेष। तीसरी लाइन थी फाइनेंस कैसे जुटाएं। यानी 2022 के चुनाव का ब्ल्यू प्रिंट था। सीधी बात, कि मिशन 2022 की तैयारी शुरू हो चुकी थी। यानी हरदा का चुनावी मैनेजमेंट तैयार हो रहा था। साफ है कि हरदा अनुभवी हैं और उनकी तैयारी पुख्ता होती है। जबकि कांग्रेस के अन्य नेता तब भी प्रापर्टी डीलिंग में ही व्यस्त थे। हरदा अति से अति महत्वाकांक्षी हैं, इस कारण उन्होंने राजनीति में दोस्त से कहीं अधिक दुश्मन बनाए। यही कारण है कि वह पहले भी अकेले थे और आज भी बेहद अकेले हैं। आज उनका लाड़ला बेटा आनंद भी राजनीतिक गुरु रूपी पिता पर सवाल उठा रहा है कि हरदा ने उसका अंगूठा मांग लिया। हरदा अब कोई भी तर्क दें, लेकिन यही सच है।
उस दिन इंटरव्यू में मैंने हरदा से कई निजी सवाल भी किये, जो प्रकाशित नहीं किये। हरदा पार्टी लाइन से विलग अपनी लाइन बनाकर चलते हैं। तो उस समय उनके मिशन 2022 को लेकर तीन मुद्दे थे, गौ, गंगा और गन्ना। बाद में इसमें उत्तराखंडित शब्द जुड़ गया जो कि विचारक और सोशल एक्टिविस्ट प्रेम बहुखंडी का दिया हुआ शब्द है। उस दिन मैंने हरदा से सवाल किया कि राजनीतिक विरासत किसे सौंपेंगे? उनका जवाब था कि यदि पार्टी मेरे कार्य से खुश है तो मैं चाहूंगा कि आनंद रावत मेरा उत्तराघिकारी बने। लेकिन 2022 के चुनाव में हरदा मुकर गये और बेटी अनुपमा को हरिद्वार ग्रामीण से टिकट दे दिया। यानी आनंद का अंगूठा ले लिया गया।
आनंद ने 2011 के बाद तेजी से अच्छा कार्य किया। नशे के खिलाफ अभियान भी चलाया, लेकिन 2016 के बाद वह राजनीतिक तौर पर हाशिए पर ही चला गया। इसका कारण हरदा ही थे। उनका व्यक्तित्व बड़ा है और उससे भी बड़ी हैं महत्वाकांक्षाएं। इनके आगे आनंद का कद बहुत छोटा था। पिता ने उंगली पकड़कर राजनीति में चलना तो सिखाया पर मौका मिलते ही उसका अंगूठा काट दिया कि वह आगे ही न बढ़े। उधर, बड़ा बेटा वीरेंद्र रावत भी खूब फड़फड़ाता है। तमाम कोशिशों के बावजूद वीरेंद्र को भी राजनीतिक पहचान नहीं मिल सकी। आनंद उससे कहीं आगे निकल गया।
हरदा राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं, लेकिन उनके तुरुप के पत्ते अक्सर फेल हो गये, क्योंकि उन्होंने बड़ा नेता बनने के चक्कर में अपनी जड़ों का ही सम्मान नहीं किया। उन्होंने राजनीति में इस बात की नींव रखनी चाही कि वह कहीं से भी चुनाव लड़े, जीत जाएंगे। ऐसे में जिसकी सीट कब्जाते, वही दुश्मन बन जाता। इस बड़े नेता बनने के चक्कर में वह अपनी मिट्टी से कट गये, यानी जिस जनता की बदौलत वह राजनीति में आए। उस जमीन को ही भूल गये। अल्मोड़ा के छोटे से गांव मोहनरी से सत्ता का जो गोल्डन पीरियड रहा, उससे ही नाता तोड़ लेना संभवतः यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी। उनके पास आज 70 विधानसभा क्षेत्रों में एक भी अपनी सीट नहीं है तो आनंद को विरासत में सीट देंगे कहां से?
अनुपमा को टिकट देना हरदा की मजबूरी थी, क्योंकि प्रियंका यूपी में महिलाओं को 40 फीसदी टिकट की बात कर रही थी और अनुपमा ने वह बात लपक ली। वह अपने पिता को अच्छे से जानती हैं, इसलिए राजनीतिक दाव खेला होगा। यह भी संभव है कि हरदा ने सोचा होगा कि आनंद को टिकट दें तो पार्टी में विरोध के स्वर बुलंद होंगे। अनुपमा को महिला आरक्षण और प्रियंका की यूपी नीति का लाभ मिल गया। हरिद्वार ग्रामीण में यतीश्वरानंद की छवि ठीक नहीं थी और अनुपमा ने उस सीट पर वर्षों मेहनत की तो उसे जीत नसीब हो गयी।
यह सच है कि आनंद रावत उत्तराखंड की राजनीति के ऐसे एकलव्य हैं जिनके पिता ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उससे बार-बार अंगूठा मांगा। हरदा ने हर बार चुनाव के दौरान आनंद रावत को टिकट दूर से दिखा कर वादों का झुनझुना पकड़ा दिया और आटे के घोल में चीनी मिलाकर पिला दिया और कहा कि बेटा, यह दूध है, पी जा। अब, आनंद रावत पिता के दिये हुए झुनझुने को बजा रहा है और उसे यदि राजनीति में आगे बढ़ना है तो अपनी जमीन खुद ही तलाशनी होगी। पिता ने विरासत में कोई सीट छोड़ी ही नहीं है। वैसे भी लोकतंत्र है, राजशाही नहीं। लेकिन उत्तराखंड में तो राजशाही ही चल रही है तो आनंद को चुभता तो होगा कि काश, पिता ने एक अदद सीट पर तो उसके लिए राजनीतिक जमीन तैयार की होती।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]