- गढ़वाली व्यंग्य लेखन में घंजीर का जवाब नहीं
- पहाड़ से दूर रहकर भी पहाड़ की हर घड़कन को गिन लेने का अद्भुत सामर्थ्य
पलायन की पीड़ा पहाड़ की नीयति है और इसी पीड़ा से त्रस्त है सुनील थपलियाल घंजीर। बड़े होकर कुछ बड़ा बनने के सपने को लेकर घंजीर से पहाड़ तो छूट गया, लेकिन हिमालय, पहाड़ और नदी-झरने न तो आंखों से कभी ओझल हुए और न कभी दिल से दूर। पहाड़ का जीवन बड़ा सरल है लेकिन महानगरों का जीवन बड़ा मुश्किल होता है। लाखों की भीड़ के बीच अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती होती है। हवा कैसी भी हो, अपना चूल्हा खुद जलाना होता है और खुद ही रोटी बनानी होती है।
जिंदगी की इसी जद्दोजेहद के बीच घंजीर ने अपने दिल में बसी पहाड़ की पीड़ा को उकेरना शुरू किया। घंजीर ने उस पीड़ा को उकेरने के लिए कटु शब्दों की बजाए व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया। गढ़वाली व्यंग्यात्मक लेखन में मौजूदा समय में शायद ही कोई साहित्यकार हो जो घंजीर की टक्कर का हो। जिन लोगों ने घंजीर को नहीं पढ़ा तो समझो उन्होंने पहाड़ को समझा ही नहीं। एक बात और बता दूं कि घंजीर ने कोई किताब नहीं लिखी। मस्त-मौला घंजीर कहते हैं कि आज के युग में भला कौन किताब पढ़ता है? खुद ही छापो, खुद ही पढ़ो। लिहाजा, वह सोशल मीडिया में अधिक सक्रिय हैं।
यूं तो घंजीर अमेली डांडा फरीदाबाद में रहते हैं, लेकिन वह हमारे आसपास ही है। मुझे गर्व है कि घंजीर नियमित तौर पर उत्तरजन टुडे के लिए गढ़वाली में व्यंग्य लिखते हैं। आप उन्हें पढ़िए जरूर, आपको लगेगा आपके घर की बात कर रहे हैं, आपके गांव की घटना चलचित्र की भांति आपकी आंखों के सामने है। घंजीर के शब्दशिल्प का जादू माने, आप स्वयं को उस लेखन का एक पात्र मानेंगे।
गढ़वाली भाषा के संवर्द्धन और संरक्षण में जुटे घंजीर को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं। कामना यही कि अपने शब्दशिल्प से यूं ही लोगों के दिलों में उतरते रहना।
घंजीर को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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