- विधायकों को खुश करने, फैसले पलटने में बीत गये तीन माह
- कोरोना से निपटने में पूरी तरह विफल रहा सिस्टम
तीरथ सिंह रावत को सीएम के तीन माह बीत चुके हैं। अगले तीन माह में उन्हें विधायक भी बनना होगा। यह हास्यापद बात है कि 57 विधायकों वाली प्रचंड बहुमत की सरकार के मुखिया के लिए एक अदद सीट नहीं मिल पा रही हैं। पिछले तीन माह में तीरथ सरकार की कार्यप्रणाली की बात करें तो सीएम बनते ही तीरथ सिंह रावत ने धड़ाधड़ त्रिवेंद्र सरकार के फैसलों को बदला। यानी जनता के बीच यह संदेश गया कि भाजपा ने जिस नेता को चार साल तक प्रदेश का मुखिया बनाया वो गलत फैसला था। गैरसैंण कमिश्नरी, देवस्थानम बोर्ड से 51 मंदिरों को हटाना, डीडीए, कोरोना के मुकदमे वापस लेना, सरकार के चार साल का जश्न न मनाना आदि फैसले पलट दिये गये। इसके बाद विधायकों को खुश करने का काम किया गया। कर्मकार बोर्ड समेत विवादों में घिरे हरक सिंह रावत को तवज्जो मिलने लगी। त्रिवेंद्र सिंह रावत की शिकायत लेकर दिल्ली दरबार पहुंचे चुफाल को मंत्री पद का अवार्ड दिया गया। बुजुर्ग नेता बंशीधर भगत को शहरी विकास जैसे भारी-भरकम विभाग का बोझ दे दिया गया। यानी सबको खुश करने के चक्कर में ही तीरथ का वक्त कट गया। हालांकि तीरथ ने होर्डिंग्स और प्रचार माध्यमों में अपनी और पीएम मोदी की फोटो लगाकर रौब गांठने की कोशिश की कि उनपर अनावश्यक दबाव न बनाया जाएं लेकिन ये चाल नहीं चली।
टीम तीरथ में वो सभी मंत्री बने जो टीम त्रिवेंद्र में थे। जबकि त्रिवेंद्र रावत की विफलता को पूरी टीम की विफलता माना जाना चाहिए था। इसे तीरथ की विवशता या कमजोरी माना गया। तीरथ सिंह रावत ने न उनके विभाग बदले और न ही एक को भी हटाया। जबकि सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत और रेखा आर्य को टीम में नहीं होना चाहिए था या कम से कम उनके विभाग बदलने चाहिए थे। दूसरे जो बड़ा निर्णय था यानी वित्त मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री का। वो तो लिया ही नहीं गया। प्रदेश 66000 करोड़ के कर्ज में है, लेकिन हमारे पास न मंत्री है और न वित्त सचिव। वित्त सचिव अमित नेगी को स्वास्थ्य सचिव का कार्य सौंप कर उनको बोझ तले दबा दिया गया। इसका परिणाम हुआ कि न तो वो वित्त ही अच्छे से संभाल सके और न ही कोरोना काल में स्वास्थ्य।
इस बीच तीरथ सिंह के कई विवादित बयानों से उनको खूब नकारात्मक चर्चा मिली। रही सही कसर, कोरोना ने पूरी कर दी। कोरोना काल में तीरथ सिंह रावत सरकार पूरी तरह से फेल रही। इलाज के लिए न तो अस्पताल थे और न हैं। कोरोना की दूसरी लहर में पूरा तंत्र फेल हो गया। सड़कों पर मौतें होती रही। मरीज एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जाते रहे लेकिन कहीं बेड नहीं मिला, आक्सीजन नहीं मिली। इंजेक्शन और दवाओं की जमकर कालाबाजारी हुई। प्रदेश में अधिकारिक तौर पर लगभग सात हजार लोगों की मौत हो चुकी है। पहाड़ों में हालत बेकाबू हो गये। दवाएं नहीं मिली। कोरोना किट में भी धांधली की बात सामने आई।
तीरथ सिंह रावत सरकार को कोरोना से लड़ने के लिए जब एक अच्छा हेल्थ एडवाइजर या कमेटी की जरूरत थी, वो वन विभाग के एक पूर्व विवादित अधिकारी आरबीएस रावत को सलाहकार और पूर्व मुख्य सचिव शत्रुघन सिंह को अपना मुख्य सलाहकार बनाकर ले आए। इसका मौजूदा नौकरशाहों में भी विरोध है। आरबीएस रावत पर भर्ती परीक्षा में धांधली के गंभीर आरोप हैं। कुंभ का फैसला भी तीरथ सरकार की अदूरदर्शिता था। देवस्थानम बोर्ड से मंदिर तो हटा दिये गये लेकिन तीर्थपुरोहित आज भी नाराज हैं।
हालांकि किसी भी राज्य के मुखिया के लिए तीन महीने का समय बहुत कम होता है लेकिन तीरथ को पार्टी हाईकमान ने कुछ सोच कर ही यह जिम्मेदारी दी होगी। इसलिए जनता की उम्मीदें उनसे यह थी कि कम समय में अधिक बेहतर ढंग से काम करते। तीरथ ने ऐसा नहीं किया। यही कारण है कि उनके लिए अब तक सुरक्षित सीट भी नहीं मिली। कोरोना से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि प्रदेश में समयपूर्व चुनाव हो सकते हैं यानी तीरथ को उपचुनाव लड़ने की जरूरत नहीं। लेकिन यदि आज के समय में चुनाव होते हैं तो भाजपा का हारना तय है। ऐसे में अब तीरथ का उपचुनाव लड़ना मजबूरी होगा। यानी अब अगले तीन महीने में तीरथ को सरकार और अपनी छवि को सुधारने की बड़ी चुनौती है। उनका एक भी गलत फैसला उनके लिए ही नहीं भाजपा के लिए भी मुसीबत का सबब बन सकता है। उत्तराखंड में सीएम के चुनाव हारने का मिथ भी है, ऐसे में देखना है कि तीरथ इस मिथ के शिकार होते हैं या कुर्सी बचा लेते हैं।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]