- काम का बोझ, तनाव, पैसे की तंगी यानी बीमारियों का घर
- पत्रकारिता का जोखिम कौन देखता है, बस, आसान है कहना, मीडिया बिकाऊ है!
ऋषिकेश में दैनिक जागरण में कार्यरत पत्रकार दुर्गा नौटियाल का कल कैंसर के कारण निधन हो गया। यह बेहद ही दुःखद है। कैंसर अक्सर देर से पता चलता है तो यह लाइलाज हो जाता है। यदि सीमित संसाधन हो तो कैंसर की बीमारी पूरे परिवार को तोड़ देती है। कुछ पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो लगभग 90 प्रतिशत पत्रकार आज भी तंगहाली में जीवन गुजारते हैं। काम का बोझ, मीटिंग-मीटिंग और कार्ययोजना बनाते-बनाते थक चुके पत्रकारों को तब अवसाद और बीमारियां और घेर लेती हैं जब लाला पूरे साल मेहनत करने के बावजूद पत्रकारों को सालाना इंक्रीमेंट तीन महीने बाद देता है और वह भी महज हजार रुपये के आसपास। महंगाई तो आसमां छू रही है। लाला और ठेकेदार संपादक अब पत्रकारों को बिजनेस टारगेट भी देता है, अखबार बेचने का काम भी दिया जाता है। यानी खबरों के साथ विज्ञापन भी लाओ और सर्कुलेशन भी बढ़ाओ।
लालाओं के अखबारों में चांदी संपादक, एनई, डीएनई और ब्यूरो चीफ की होती है। अक्सर संपादक लाला से ठेका ले लेता है कि मुझे ठीक से पे कर दो, बाकी मैं संभाल लूंगा। इस पूरी प्रक्रिया में कुछ पत्रकारों के पास भ्रष्ट बनने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है जबकि ईमानदार पत्रकार महीने की बंधी-बधाई पगार में ही दिन गुजारने की मशक्कत करता है। कारपोरेट जर्नलिज्म के साइड इफेक्ट का सबसे अधिक बुरा प्रभाव एडिटोरियल टीम पर ही पड़ा है। उनका काम कई गुणा बढ़ गया है और वेतन ब्रांड, सकुर्लेशन और मार्केटिंग से भी कम। दिनचर्या तो कोई होती ही नहीं है। ऐसे में पत्रकार तनाव, अवसाद और अन्य बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा शून्य है। पत्रकारों की न लाला को परवाह है और न ही सरकार को। पत्रकार कल्याण कोष में एक आम पत्रकार को चवन्नी लेने के लिए भी ऐड़ियां रगड़नी पड़ती हैं। स्वास्थ्य बीमा की कोई गारंटी नहीं।
दुर्गा के निधन पर सोशल मीडिया अटा पड़ा है, पर कोई उसके घर के हाल पूछेगा क्या? मैं उसे नहीं जानता, लेकिन पता चला है कि परिवार में दुर्गा अकेला कमाने वाला था। लाला कुछ करेगा, कोई उम्मीद नहीं। लालाओं के संस्थान में क्या होता है पत्रकार भुवनेश जखमोला एक्सीडेंट की घटना को याद कर लो। उसका परिवार आज भी तंगहाली में दिन गुजार रहा है। जागरण का लाला कुछ करे या न करें, पर कुछ पत्रकारों को एकजुट होना होगा। दुर्गा के परिवार के हितों की रक्षा करने के लिए। महज श्रद्धांजलि देने से काम नहीं चलेगा, यदि संभव हो तो विचार करें कि हम उसके परिवार को किस तरह से मदद कर सकते हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)
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