- ‘धन‘ तो बेवफा है, ओमी दिलफेंक, कहीं भी दिल लगा ले
- देश और वसूलों से भी प्यारी, कुर्सी हमारी
हरदा ने बहुत साल बाद किशोर से व्यस्यक हुए किशोर को समझाया, तू छोटा भाई है, मैंने तुझसे खूब काम कराया, तुझे डांटा-फटकारा। माना कि तेरा खूब इस्तेमाल भी किया, लेकिन मैं हूं तेरा ही भाई। तू घर छोड़कर न जा। किशोर ने जिद पकड़ी, न हरदा न, बहुत हुआ। कब तक मेरा शोषण करोगे। खुद सत्ता की मलाई चाट जाते हो और कढ़ाई मुझे मांजने के लिए दे देते हो। हाथों पर छाले पड़ जाते हैं। अब ऐसा नहीं होगा। हरदा ने किशोर को भोले-भाले मतदाताओं की तरह बहलाया, फुसलाया। बताया कि मैं ऐसी नदी में तैर रहा हूं जहां मगरमच्छ ही मगरमच्छ हैं, खतरे में हूं, लेकिन किशोर तो व्यस्यक हो गया। हरदा के घड़ियाली आंसुओं की परवाह किये बिना बोला, न हरदा, अब न हो पाएगा। अपनु का भी टाइम आएगा। हरदा ने किशोर की जिद देखी तो उसका हाथ छोड़ा और कहा, जा किशोर जा, जी ले अपनी जिंदगी। किशोर भीगी पलकों के साथ दलदल में धंसता चला गया और कमल तक जा पहुंचा।
उधर, डाक्टर रूपी धन तो बेवफा निकला। बताओ, पांच साल सत्ता की खूब मलाई चाटी। गरीबों का हक मारा। योजनाओं का कमीशन खाया। जनता को दुत्कारा। उंगलियां सत्ता की घी की बोतल में और सिर कढ़ाई में था, तब खून में कमल था। साहेब तीनों लोकों में सबसे प्रिय थे। आन-बान और शान कमल था। बस, एक तुच्छ सा टिकट क्या नहीं दिया कि धन बेवफा हो गया। सच भी यही है कि धन किसी का नहीं हुआ। हुआ क्या? धन का क्या है आज इसका, कल उसका। नागपुरी संतरों का स्वाद फीका हो गया तो छिलके समेत फेंक कर कहीं और हाथ बढ़ा लिया। बेवफा कहीं का।
हे ओमी, तेरी क्या बात करें। हमने क्या समझा लेकिन तू तो दिलफेंक निकला। जहां कुर्सी दिखी, पीछे लपक लिया। घर बदलने की आदत सी हो गयी तेरी। बड़े संस्कार दिये थे तुझे मां-बाप ने। मिट्टी की सोंधी महक थी खून-पसीने में तेरे। लेकिन शहरों की आबो-हवा और बालीवुड की फिल्मों ने तुझे बिगाड़ दिया। आवारा हो गया तू। कभी इधर, कभी उधर, दिन। बस, गुजर जाए, रात जहां हो जाएं, वहीं सो जाएं। जल्दी कुछ बनने के चक्कर में घनचक्कर हो गया है तू। आवारा-आशिक- बेघर-बेचारा। उम्र हो गयी तेरी, कहीं तो घर बसा ले, पागल। कब तक फिरेगा यूं मारा-मारा।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]