- भ्रष्टाचार और भेदभाव के कारण नहीं चढ़ते डाक्टर पहाड
- हेल्थ सिस्टम में निदेशालय स्तर पर अलग कैडर बनाने की जरूरत
देहरादून के कई स्पेश्यिलिस्ट डाक्टर्स को अचानक ही अल्मोड़ा मेडिकल कालेज के लिए ट्रांसफर कर दिया गया। इसे लेकर डाक्टरों में रोष है, कुछ इस्तीफा देने की सोच रहे हैं। यदि दो डाक्टर भी इस्तीफा देते हैं तो पहले से ही विशेषज्ञ डाक्टरों की कमी झेल रहे उत्तराखंड के लिए यह झटका ही होगा। कुप्रबंधन, भाई-भतीजावाद और तबादला नीति सही नहीं होने से डाक्टर पहाड़ चढ़ने के लिए तैयार ही नहीं होते।
उदाहरण लीजिए, मार्च महीने में पौड़ी के रिखणीखाल इलाके के एक पीएचसी में स्टाफ की शिकायत पौड़ी के डिप्टी सीएमओ डा. तोमर से की तो वो फोन पर ही अपना दुखड़ा रोने लगे कि आठ साल से पौड़ी में हूं। बच्चे परेशान हैं और तबादले के लिए उनके पास न तो सोर्स है और न ही पांच लाख। क्या डाक्टरों के तबादले में भी पैसे का खेल है? पता नहीं। लेकिन यह जरूर पता है कि पहाड़ में तैनात डाक्टर की मैदान में वापसी आसान नहीं।
चमोली के पूर्व सीएमओ डा. अजीत गैरोला की शिकायत है कि उन्हें पूरे 24 साल पहाड़ में ही तैनाती दी गयी। मैदान में जो उनसे जूनियर थे वो डीजी हेल्थ तक बन गये। स्वास्थ्य महानिदेशालय में जितने भी बड़े अफसर हैं उनमें से अधिकांश कभी पहाड़ गये ही नहीं। उनका यह दावा कहीं हद तक ठीक है।
हेल्थ सेक्टर में लोगों को जागरूक करने का काम कर रही एसडीसी फांउडेशन के अनूप नौटियाल का सुझाव बहुत सार्थक है। उनका कहना है कि सीएमओ को भी प्रैक्टिस करनी चाहिए। इसके अलावा निदेशालय स्तर पर विशेषज्ञ डाक्टरों की तैनाती नहीं होनी चाहिए। हेल्थ मैनेजमेंट के लिए अलग से अफसरों का कैडर होना चाहिए ताकि विशेषज्ञ डाक्टरों का लाभ जनता को मिल सके।
दरअसल, हमारे प्रदेश में नीतियों का अभाव रहा है। यदि फौज का डाक्टर सियाचिन में तैनात रह सकता है तो हमारा डाक्टर पहाड़ क्यों नहीं चढ़ता? साफ है तबादला नीति सही नहीं है। भेदभाव होता है। आर्मी के डाक्टर को पता है कि वह डेढ़ साल सियाचिन में रहेगा और फिर उसका तबादला हो जाएगा, लेकिन उत्तराखंड पहाड़ गये तो वापसी के दरवाजे बंद हो जाते हैं। बेहतर है कि सरकार डाक्टरों के लिए ट्रांसफर और प्रमोशन पालिसी बनाए।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]