- अंकिता को इंसाफ नहीं मिला तो पहाड़ियों का जीना बेकार
- हम राज्य के मालिक तो बने, लेकिन मानसिकता गुलामी की है!
आज सुबह यूकेडी की महिला नेता प्रमिला रावत से फोन पर बात हुई। वह ऋषिकेश के कोयल घाटी जा रही थी जहां अंकिता हत्याकांड की सीबीआई जांच की मांग को लेकर पिछले 41 दिनों से धरना चल रहा है। प्रमिला बहुत साधारण नेता होते हुए भी असाधारण है कि वह एक संवेदनशील नारी है। उसे एहसास है कि अंकिता के साथ आज जो कुछ हुआ और हम अगर चुप रहे तो कोई गारंटी नहीं कि पहाड़ों में हमारी बेटियां-बहुएं सुरक्षित रहेंगी? प्रमिला जैसी महिलाएं कहां हैं? क्या उनकी बेटियां नहीं हैं? क्या वह गारंटी मान कर चल रहे हैं कि उनकी बेटियां सुरक्षित रहेंगी? क्यों उनका खून नहीं खौलता? इसलिए कि यह घटना अंकिता के साथ घटी है। अंकिता उनकी बेटी नहीं है। अंकिता जैसी घटनाएं होती रहती हैं।
मुझे अत्यंत पीड़ा होती है कि हम पहाड़ी बहुत निर्मम हो गये हैं। अपने तक सीमित भी। ऐसा नहीं कि हमने कोई मुकाम हासिल कर लिया है। हमने अपनी मनोवृत्ति नहीं बदली है। हम पचड़ों से दूर रहते हैं। सोचते हैं जिसे करना हो, वह करें। हमें क्या? हमारी मानसिकता यही है कि 12वीं पास हो जाएं तो बेटा सेना में चला जाए। कोई सरकारी नौकरी वाला मिल जाएं तो बेटी के हाथ पीले कर दो। बेटा ग्रेजुएट हो गया है तो सरकारी नौकरी की तैयारी करें। 15-20 लाख रुपये खर्च कर दो तो सरकारी नौकरी भी मिल ही जाएगी।
हमारी सोच है कि हम सुरक्षित जीवन ढूंढते हैं जबकि जीवन में सुरक्षा है ही नहीं। फौजी शहीद हो जाता है और सरकारी नौकरी पैसे देने के बावजूद निरस्त हो जाती है। सुरक्षा कहां है? बस हम गुलामी की मानसिकता लिए जी रहे हैं। हमारी इसी घटिया सोच ने हाकिम सिंह रावत और प्रेमचंद अग्रवाल जैसे लोग पैदा किये हैं जो हमारे लिए भस्मासुर बन गये।
मेरी पीड़ा उस समय और बढ़ जाती है कि जब कैबिनेट मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल किसी समारोह में जाते हैं और लोग उनके लिए ताली बजाते हैं। ऐसे मंत्रियों और नेताओं का बहिष्कार नहीं होगा तो पहाड़ का भला भी नहीं होगा।
अंकिता हत्याकांड महज एक बेटी की हत्या नहीं है। यह पहाड़ की अस्मिता की हत्या है। यह शुरूआत भर है। यदि अंकिता के हत्यारों को सजा नहीं मिली तो एक परिपाटी चल पड़ेगी और राजनीति और अपराधियों का गठजोड़ और अधिक मजबूत होगा। अंकिता मामले में एसआईटी और पुलिस खूब लीपा-पोती कर रहे हैं। एसआईटी ने आज तक यमकेश्वर की विधायक रेनू बिष्ट से क्यों नहीं पूछताछ की? यदि किसी अन्य पर शक है तो उसकी लोकेशन तलाशी जा सकती है। वीआईपी का पता होते हुए भी एसआईटी बता नहीं रही कि कौन है? तो ऐसे में विश्वास कैसे हो? सीबीआई ही इसकी सही जांच कर सकती है।
हम चुप हैं, हम शांत हैं, हम सोच रहे हैं कि कबूतर की तर्ज पर कि आंख बंद कर लो बिल्ली चली जाएगी। चली जाएगी या कबूतर को दबोच लेगी। हम मर रहे हैं और यदि जी भी रहे हैं तो क्या इसे भी जीना कहते हो। यदि जमीर नहीं जाग रहा तो मर जाओ पहाड़ियों।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]