भारत की दृष्टि से इधर दो विदेश-यात्राएं ध्यान देने लायक हुई हैं। पहली अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की दिल्ली यात्रा और दूसरी तालिबान के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर की चीन-यात्रा! इन दोनों यात्राओं का उद्देश्य एक ही है। अपने-अपने हितों के लिए दूसरे राष्ट्रों को पटाना। ब्लिंकन भारत इसीलिए आए हैं कि अफगानिस्तान में वे अपनी जगह भारत को फंसाना चाहते हैं। भारत किसी भी हालत में अपनी सेनाएं काबुल नहीं भेजेगा लेकिन वह अशरफ गनी सरकार की सैनिक साज-सामान से मदद करता रह सकता है। वह अफगानों को सैनिक प्रशिक्षण देता रहा है और देता रहेगा लेकिन असली सवाल यह है कि इस वक्त ब्लिंकन भारत क्यों आए हैं? यह ठीक है कि तालिबान से दोहा में चल रही बातचीत में भारत को दर्शक की तरह शामिल कर लिया गया था लेकिन अमेरिका ने भारत सरकार से यह क्यों नहीं कहा कि वह तालिबान से सीधे बातचीत करे और अफगान सरकार और तालिबान का झगड़ा सुलझाए? यदि ऐसी कोशिश अमेरिका, रूस, चीन, तुर्की, पाकिस्तान और ईरान कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता है?
भारत को हाशिए में रखकर उसे अपने राष्ट्रहित के लिए इस्तेमाल करने की अमेरिकी नीति से भारत सरकार सावधान जरुर है लेकिन अफगान-मामले में उसका दब्बूपना समझ के बाहर है। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने ब्लिंकन द्वारा उठाए गए भारत के लोकतांत्रिक मामलों का उचित कूटनीतिक भाषा में जवाब दिया है और ब्लिंकन ने भी अपने रवैए में ज़रा नरमी दिखाई है लेकिन उन्होंने इस यात्रा के दौरान चीन पर जमकर निशाना साधा है। दलाई लामा के प्रतिनिधि से मिलना भी इसका स्पष्ट संकेत है। चीन ने भी उसके लोकतंत्र के बारे में ब्लिंकन की टिप्पणी को आड़े हाथों लिया है। अफगानिस्तान का मामला अब अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा का मामला बनता जा रहा है। मुल्ला बरादर की चीन-यात्रा से ही शायद खफा होकर ब्लिंकन ने कह दिया कि यदि तालिबान हिंसा फैलाकर काबुल पर कब्जा कर लेंगे तो अफगानिस्तान दुनिया का अस्पृश्य राष्ट्र बन जाएगा। इस बात से भारत की सरकार को भी थोड़ा मरहम लगेगा लेकिन मुल्ला बरादर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मिलने के बाद चीनी मदद के लिए तहे-दिल से आभार माना है और चीन के उइगर मुसलमानों के आंदोलन से तालिबान को अलग कर लिया है। उसने काबुल के पास आयनक नामक 60 लाख टन तांबे की खदान में 3 बिलियन डाॅलर लगाने का वादा किया है। उसका रेशम महापथ तो अफगानिस्तान से गुजरेगा ही। वह नए अफगानिस्तान को बनाने में भारत को भी पीछे छोड़ देगा। जाहिर है कि अब तक के भारतीय महान योगदान पर चीन पानी फेरने की पूरी कोशिश करेगा। भारत को देखना है कि अफगानिस्तान में चलनेवाली चीन-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा में वह कहां खड़ा रह पाएगा?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)