कोटा बढ़वाना है, तो क्यों न याद आए जाति

675
image source: social media

भारत में एक घनघोर असंवैधानिक मुहिम चल रही है और किसी भी पार्टी या नेता में दम नहीं है कि उसका विरोध करे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अन्य प्रमुख पार्टियों के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास यह अनुरोध लेकर आए कि वह सारे देश में जातीय जनगणना करवाएं। मोदी ने सबकी बात ध्यान से सुनी, लेकिन उनसे कुछ कहा नहीं। जातीय जनगणना के समर्थकों से कोई पूछे कि भारत के संविधान में कहां लिखा है कि जातियों की गणना की जाए या जातियों को आरक्षण दिया जाए। संविधान की धारा 46 में उन वर्गों को विशेष प्रोत्साहन देने की बात लिखी है, जो शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं।
संविधान में किसी भी जाति का नाम नहीं गिनाया गया है। ‘अनुसूचित जाति’ शब्द का प्रयोग जरूर किया गया है लेकिन कोई बताए कि ‘अनुसूचित’ नामक कोई जाति देश में है क्या? यह ‘अनुसूचित’ शब्द नया गढ़ा गया है। संविधान निर्माताओं की यह मजबूरी थी। उनके पास देश के अशिक्षितों और गरीबों के प्रामाणिक आंकड़े नहीं थे। इसलिए सही आंकड़ों के अभाव में उन्होंने उन सब जातियों की थोक में अनुसूची बना ली, चाहे उन जोड़े हुए लोगों में डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे सुशिक्षित और जगजीवनराम जैसे संपन्न लोग भी रहे हों।
1955 में पिछड़ा आयोग के अध्यक्ष काका कालेकर ने राष्ट्रपति को अपनी जो रिपोर्ट दी थी, उसमें लिखा था कि पिछड़ेपन का निर्णय जाति के आधार पर करना असंभव है। आरक्षण के बारे में उन्होंने लिखा था कि हमारे द्वारा सुझाए गए समाधान रोग से भी बुरे हैं। इस प्रक्रिया के कारण करोड़ों अशिक्षितों और गरीबों को विशेष अवसर मिलने के बजाय इस वर्ग के मुट्ठीभर लोगों को कुछ सौ सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलने लगा। अब जो जातीय जनगणना की मांग हो रही है, उसका असली मकसद यही है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को किसी तरह बढ़वाया जाए।
सर्वोच्च न्यायालय ने 50 प्रतिशत आरक्षण देने की जो बात कही है, वह पिछड़े वर्गों के लिए कही है। तो पिछड़े वर्गों की गणना जरूर की जाए! उसमें जाति कहां से आ टपकी? जो भी परिवार अशिक्षित और निम्न आय वाला हो, उसके लिए आरक्षण जरूर दिया जाए। उसका आधार जन्म नहीं, जरूरत हो। यदि कोई तथाकथित ऊंची जाति का परिवार हो और वह सामान्य सुविधाओं से वंचित हो तो उसे आरक्षण जरूर दिया जाए, लेकिन कोई तथाकथित नीची जाति का हो और संपन्न व सुशिक्षित हो तो उसे आरक्षण क्यों दिया जाए?
सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने से कितने लोगों का भला होगा? यदि हम हमारे करोड़ों पिछड़े हुए भाई-बहनों के साथ न्याय करना चाहते हैं तो उन्हें शिक्षा और चिकित्सा में 70-80 प्रतिशत आरक्षण तक क्यों न दे दें? यदि उन्हें शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त मिले तो नौकरियों के लिए वे आपकी दया पर कतई निर्भर नहीं होंगे। वे अपनी योग्यता के आधार पर नौकरियां पाएंगे, व्यवसाय करेंगे और भारत को शक्तिशाली बनाएंगे।
यदि जातीय जनगणना होती है तो भारतीय लोकतंत्र के लिए वह बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। जिस जातिवाद के उन्मूलन का बीड़ा डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया ने उठाया था, उसका जहर देश के कण-कण में फैल जाएगा। समतामूलक समाज का सपना ध्वस्त हो जाएगा। 74 साल की आधुनिकता पर पानी फिर जाएगा। देश के बच्चे-बच्चे में ऊंच-नीच का भेदभाव घर कर जाएगा। एक-दूसरे से नफरत बढ़ेगी। यदि जातीय संकीर्णता मजबूत होगी तो पिछड़ी जातियों के लोगों को हर गैर-सरकारी क्षेत्र में वंचित और दीन-हीन की तरह रहना होगा। डॉ. लोहिया का यह कथन हम याद करें कि ‘हिंदुस्तान की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण जाति-प्रथा है।’
देश में राष्ट्रीय चेतना पर जातीय चेतना हावी हो जाएगी। हमारे नेताओं को अपनी जातियों के नाम पर थोक वोट कबाड़ने हैं। उनके लिए कुर्सी ही ब्रह्म है। बाकी सब मिथ्या है। अब प्रांतीय चुनाव सिर पर हैं। सभी पार्टियां थोक वोट के लिए लार टपका रही हैं। चुनाव तो आएंगे और चले जाएंगे, लेकिन वे गहरे जातीय घाव छोड़कर जाएंगे।
ये जातीय घाव राष्ट्रीय एकता में मवाद भर देंगे। राष्ट्रीय एकता तो सबसे ऊंची चीज है, लेकिन जातीयता इतनी भयंकर चीज है कि यह धार्मिक एकता के भी टुकड़े-टुकड़े कर सकती है। धर्म के नाम पर 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए। अब जातियों के नाम पर कितने टुकड़े होंगे?
हिंदुओं में लगभग 20 हजार जातियां और उपजातियां हैं। यदि उनके गोत्र, उपनाम, कुल, कबीलों आदि को गिनें तो उनकी संख्या लगभग 50 लाख हो जाती है। इस्लाम में कहीं भी जात नहीं है, लेकिन भारत के मुसलमान भी जातिवाद के शिकार हैं। हमारे सिख और ईसाई भी इससे मुक्त नहीं हैं। इसके अलावा, सही अर्थों में जातीय जनगणना हो ही नहीं सकती, क्योंकि एक प्रांत में जो जाति सवर्ण है, वही दूसरे प्रांत में अवर्ण है। अपने आप को ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य कहने वाले कुछ वर्ग भी तड़प रहे हैं कि उनको भी पिछड़ों में जोड़ लिया जाए। ताकि वे भी आरक्षण की रेवड़ियों पर हाथ साफ कर सकें।
बेहतर होगा कि मोदी सरकार अपने कौल पर टिकी रहे। ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन’ के आग्रह पर 2010 में मनमोहन-सोनिया सरकार ने जातीय जनगणना बीच में ही रुकवा दी थी। यही नहीं 2014 में मोदी सरकार आई तो जो आंकड़े इकट्ठा किए गए थे, उन्हें भी प्रकाशित नहीं होने दिया। यही दृढ़ता उसे अब भी प्रदर्शित करनी होगी। उसे अपने पार्टीजनों को बताना होगा कि वह हिंदुत्व की राष्ट्रीय एकता की धारणा को छिन्न-भिन्न नहीं होने देगी और कांग्रेसियों को बताना होगा कि जैसे 1931 में गांधी और नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से जातीय जनगणना रुकवा दी थी, वैसे ही अब भी वे उसे अनुचित समझते हैं। कांग्रेस ने 11 जनवरी 1931 को ‘जनगणना बहिष्कार दिवस’ मनाया था। अब इस मुद्दे पर वह चुप क्यों है?


वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन के प्रवर्तक हैं)

काबुलः भारत करे नई पहल

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here