हिन्दी तो यूएन में आनी है

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नई दिल्ली, 10 जनवरी। डॉ विमलेशकांति वर्मा ने कहा कि हमें हिन्दी के प्रति विश्वास रखने की जरूरत है। विश्वविद्यालयों में एमए की छात्रों से भरी हुई हिन्दी कक्षाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि हिंदी में रोजगार के अवसर हैं। हिंदी एक छाते सी है जिसके अंदर 17 उपभाषाएं हैं।

विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर उत्थान फाउंडेशन द्वारका द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय वेबिनार प्रवासी हिन्दी साहित्य और अनुभूतियां- चर्चा, संस्मरण और काव्य पाठ के अध्यक्ष डॉ विमलेशकांति वर्मा ने कहा कि भौगोलिक दूरियों के बावजूद भी खानपान-वेशभूषा, रीति रिवाज और आस्था विश्वास हिन्दी के भूमंडलीकरण का प्रमाण है। उर्दू और हिन्दी के बीच फर्क सिर्फ दिखावा मात्र है क्योंकि हम स्वयं बोलचाल में हिन्दी और उर्दू बोलते हैं। बिना यह जाने कि हम दोनों भाषाएं बोल रहे हैं। वर्मा ने इसे एक सफल गोष्ठी बताया। वेबिनार का आयोजन और संचालन अरूणा घवाना ने किया।

यूरोप के नीदरलैंड से प्रो मोहनकांत गौतम ने अपनी बात साझा करते हुए कहा कि नए साहित्यकारों को आगे आना चाहिए और पुराने लोगों को चाहिए कि उन्हें स्पेस दें। संस्कार और संस्कृति एक होने के बाद भी सब देशों में हिन्दी अलग है। अपना भाव, सम्मान और अनुभूतियों ही अपनी भाषा में प्रकट होनी चाहिए।

स्पेन से पूजा ने माना कि हिन्दी के प्रति चिंता वाजिब है क्योंकि लोग दूसरे देश जाकर हिन्दी बोलने से गुरेज करते हैं। काव्य पाठ के साथ उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया।

डेनमार्क से प्रो योगेंद्र मिश्रा ने परिवार और संस्कारों से हिंदी को जोड़ कर देखा। स्वीडन से सुरेश पांडेय ने अपने संस्मरण में बताया कि संस्कार घर से ही दिए जा सकते हैं। साथ ही संपत्ति से ज्यादा संस्कार देने की बात कही। नार्वे से गुरू शर्मा ने प्रवासियों के दर्द को अपनी कविता के माध्यम से व्यक्त किया। साथ ही साझा किया कि प्रवासी होना कोई फक्र की बात नहीं है। बहुत दुख झेलने पड़ते हैं।


न्यूजीलैंड की मैसी यूनिवर्सिटी से पुष्पा भारद्वाज ने पहले भूमि पुत्र को नमन करते हुए कहा कि दुनिया में स्वदेशी तो मात्र धरती हुई बाकी तो हम धरती पर आए हैं। प्रवासियों की एक गंभीर समस्या का जिक्र करते हुए बताया कि अब फिजी-हिंदी और हिंदी-हिंदी के बीच लड़ाई है। यहां हिन्दी साहित्य लिखने वाले भारत से अपने साथ हिन्दी लाए और साहित्यकार बन गए। दूसरी बात कि हिन्दी केवल दादा-दादी से बात करने के उद्देश्य से पढ़ी जा रही है तो वे बच्चे तो साहित्यकार बन नहीं सकते। तीसरा हिन्दी का प्रचार अंतर्मन से करना जरूरी है।
इंग्लैंड से शैल अग्रवाल ने बतौर अभिभावक बताया कि हिंदी घर से ही स्थापित होगी। वे इस बात से सहमत दिखीं कि अंग्रेजी और हिन्दी में कोई द्वंद्व नहीं है। बच्चे स्कूल में अंग्रेजी पढ़ें और घर पर हिन्दी में बात हो। आज हिन्दी के बदलते रूप पर विचार करने पर जोर देकर लिपि को बचाए रखने पर जोर दिया।


साथ ही यूके से अनिल चंदेल ने माना कि नई पीढ़ी में हिंदी के प्रति उदासीनता के प्रति जितने अभिभावक जिम्मेदार और बेबस हैं उतने ही हालात भी। यूएई में हिन्दी बोली जाती है। अब हिन्दी के एक अच्छे भविष्य की कल्पना की जा सकती है। साथ ही प्रवासी भारतीयों के दर्द को शब्दों में बखूबी उतार है।
संचालिका अरूणा घवाना ने विश्व हिन्दी परिदृश्य पर वक्तव्य पढ़ा और काव्य पाठ कर विश्वास जताते हुए संस्मरण सुनाया- हिन्दी की बिंदी का परचम होगा- तो बहुत से लोगों ने इसका मजाक उड़ाया और कुछ ऐसा भाव दिया था, कि अंग्रेजी बिन तो सब सून, लाख पढ़ा ले तू हिन्दी, इसकी बिंदी तो मिट ही जानी है। पर अब पासा उलटा है- लाख पढ़ा ले अंग्रेजी तू, हिंदी तो अब रानी है। विश्व भर में धाक जमा, यूएन में तो आनी है।
इसके अलावा बेविनार में यूएसए से कुसुम नेपसिक एवं यूएई से मंजू तिवारी और शोधार्थी दीप्ति अग्रवाल भी शामिल हुईं।

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