- मीलों दूर रह कर भी पहाड़ में जमीं हैं गहरी जड़ें
- व्यंग्य के माध्यम से ‘घंजीर‘ ने दिया गढ़वाली भाषा को नया आयाम
पिछले पांच दिन फरीदाबाद और राजस्थान के भिवाड़ी में गुजरे। इस यात्रा की डायरी बाद में। नवभारत टाइम्स में नौकरी के दौरान मैं फरीदाबाद और गुड़गांव का ब्यूरो चीफ था। एनबीटी की नौकरी के बाद लगभग 12 साल बाद फरीदाबाद गया। यहां डाउन टु अर्थ के वरिष्ठ पत्रकार साथी राजू सजवाण से मिलना था लेकिन वह हल्द्वानी थे। इस दौरान सुनील थपलियाल ‘घंजीर‘ से मिला। उनका आतिथ्य जबरदस्त था। पहाड़ में रहने वाले ही पहाड़ी नहीं होते। मैदानों और यहां तक कि सात समंदर पार भी यदि कोई शख्स अपन माटी और थाती से जुड़ा है तो वह सच्चा पहाड़ी है। ‘घंजीर‘ विशुद्ध पहाड़ी है यानी गांव में रहने वाले पहाड़ी से भी अधिक पहाड़ी। फरीदाबाद में रह कर भी वह पहाड़ की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटनाओं से जुड़े रहते हैं।
घंजीर गजब के व्यंग्यकार हैं। पिछले आठ साल से लगातार उत्तरजन टुडे में उनके गढ़वाली व्यंग्य प्रकाशित हो रहे हैं। जिसने घंजीर को नहीं पढ़ा, उन्हें बता दूं कि यदि आपको अपनी बोली-भाषा से प्रेम है तो घंजीर को जरूर पढ़े। वह गजब के लिखाड़ हैं। भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ है और विषय की जबरदस्त समझ है। वह किसी भी मुद्दे को व्यंग्य के माध्यम से ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि व्यंग्य सीधे दिल तक पहुंच जाता है। इसलिए नाम घंजीर है। यह भी बता दूं कि घंजीर की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई फरीदाबाद में हुई, लेकिन उनकी ठेढ़ गढ़वाली सुनकर कोई नहीं बता सकता है कि यह शख्स पहाड़ से दो कदम दूर भी गया हो। यह हैं घंजीर के संस्कार और अपनी माटी और थाती के प्रति समर्पण।
खैर, फरीदाबाद में घंजीर मुझे और मेरे शिक्षक भाई भगवती को हनुमान मंदिर, परसोन मंदिर और बड़कल झील ले गए। फरीदाबाद कुछ और गंदा और प्रदूषित हो गया है। मैंने एनबीटी में बड़कल रिवाइवल और अरावली के सौंदर्य और दोहन पर बहुत सी खबरें लिखी थी। बड़कल रिवाइवल का कार्य हो तो रहा है लेकिन कछुआ गति से। परसोन मंदिर पहाड़ से दूर एक और पहाड़ है। यहां गंधक का जलकुंड सहस्रधारा की याद दिलाता है। विस्तृत में बाद में लिखूंगा।
घंजीर ने मुझे 12 साल बाद फरीदाबाद की सैर कराई और पुरानी यादें ताजा की, इसके लिए घंजीर का आभार।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)