‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है‘

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  • पापी पेट के लिए दरबारी हो गये पत्रकार
  • जो पत्रकार चुप रहेगा, वही फायदे में रहेगा

परसों जब देश की नयी संसद का उद्घाटन हो रहा था तो जंतर-मंतर पर महिला पहलवानों को धरने से हटाने के लिए लोकतंत्र की हत्या हो रही थी। अधिकांश पत्र और पत्रकार चुप रहे। जोशीमठ आपदा पर फरमान आया कि मीडिया को कुछ न बताया जाएं तो मीडिया से जोशीमठ के लोगों का दर्द गायब हो गया। अंकिता भंडारी हत्याकांड का मुद्दा मीडिया से गायब हो गया। मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल की गुंडागर्दी पर मीडिया ने सवाल उठाने बंद कर दिये। बेरोजगार युवाओं पर लाठीचार्ज के बाद भ्रष्टाचार पर मीडिया में बात बंद है। घुड़दौड़ी की असिस्टेंट प्रोफेसर मनीषा भट्ट का मामला दबा दिया गया। यानी सरकार हथोड़ा मारती है कि लिखना या दिखाना बंद करो, नहीं तो विज्ञापन बंद। हम सब चुप्पी साध लेते हैं। यानी सरकार डराती है और मीडिया डर जाता है। पापी पेट का सवाल है।
यही प्रवृत्ति यदि ‘उदन्त मार्तण्ड‘ के संपादक जुगल किशोर शुक्ल की रही होती तो वह अंग्रेजों से डेढ़ साल तक नहीं लड़ सकते थे। न ही आजादी की लड़ाई लड़ने वाले अन्य पत्रकार। अब जनसरोकारों की बात गौण हो गयी है। पापी पेट सबको झुका देता है। यदि पत्रकारिता का सवाल पेट से ही है और पत्रकारों की नीयति ही चुप्पी है तो फिर क्यों न दूसरा धंधा अपना लिया जाएं। पैसा भी मिलेगा और सम्मान भी बचा रहेगा।
जले-भुने और दिलजले पत्रकारों को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की शुभकामना।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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