- सरकार की नजरें कमजोर, चश्मा बदलने की जरूरत
- न प्री-फैब मकान बने और न विस्थापन हुआ न मुआवजा मिला
चारधाम यात्रा 22 अप्रैल से शुरू हो रही है। हर साल जोशीमठ में इस यात्रा को लेकर उत्साह होता था। व्यापारियों के साथ ही स्थानीय लोगों को भी कुछ रोजगार मिल जाता। इस बार जब यात्रा शुरू हो रही है तो कुछ लोग होटलों में विस्थापित हैं तो कुछ सार्वजनिक भवनों में। ऐसे में कैसे भगवान बदरी विशाल और नृसिंग देव के दर्शनों के लिए आ रहे तीर्थयात्रियों का स्वागत करें? या कुछ कमाने की जुगत करें। सिर पर छत न हो तो जीना कितना मुश्किल है, यह जोशीमठ के प्रभावितों को देख अंदाजा लग जाता है।
माना कि जोशीमठ को लेकर सरकार की नीयत साफ है। लेकिन सवाल तो उठते हैं कि काम धरातल पर क्यों नहीं हो रहे हैं? दो हजार प्री-फेब बनने थे। बन गये क्या? होटलों और सार्वजनिक भवनों में लोग कब तक रहेंगे? पीपलकोटी और दूसरे सुरक्षित स्थानों पर बसाने की योजना कितनी सिरे चढ़ी। मुआवजे का क्या हुआ?
आठ संस्थाओं द्वारा किये गये अध्ययन सर्वेक्षण की रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों नहीं की गयी? ठीक है जोशीमठ की 30 प्रतिशत भूमि ही दरक रही है, लेकिन क्या गारंटी है कि दरारें और नहीं बढ़ेंगी। चारधाम यात्रा के दौरान क्या सरकार ने अब तक वहां कैरिंग कैपिसिटी तय की है। या तीर्थयात्रा के कुछ मानक तय किये हैं। हेलंग-मारवाड़ी बाईपास को लेकर सरकार का क्या स्टैंड है? क्या एनटीपीसी पूरी तरह से निर्दोष है? समग्र विस्थापन नीति अब तक क्यों नहीं बनी? मुआवजे के मानक अब तक तय क्यों नहीं हुए?
सरकार को चाहिए कि जोशीमठ को पूरी गंभीरता से ले। वहां के नौनिहालों ने इस बार किस तरह से बोर्ड परीक्षाएं दी हैं, यह विचारणीय है। प्रभावितों की सुनवाई होनी चाहिए और धरातल पर काम नजर आने चाहिए। सरकार बंद कमरों में जोशीमठ के भाग्य का फैसला न करे। प्रभावितों को विश्वास में ले।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]