लक्ष्मण रावत का यूं चले जाना अखर रहा है

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  • हम पहाड़ियों को अपनों की कद्र ही नहीं
  • गढ़भोज के माध्यम से पहाड़ी व्यंजन को दी नई पहचान

फरवरी, 2018 की बात है। राजपुर पर एक तीन मंजिला भवन में एक रेस्तरां खुला गढ़भोज। पहाड़ के व्यंजनों की रस्याण का। बहुत ही शानदार और उच्च क्वालिटी का रेस्तरां था यह। अच्छे शेफ, प्रोफेशनल वेटर, स्टीवर्ड आदि। यह बिल्डिंग किराये पर ली गयी थी। यह पहल की रुद्रप्रयाग के एक पहाड़ी लक्ष्मण रावत ने की थी।
लक्ष्मण के जीवन संघर्ष और सफलता की कहानी के साथ ही उसके माटी और थाती के प्रति समर्पण को लेकर मैं बहुत प्रभावित था। गढ़भोज के लिए प्रचार करने में मैंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लक्ष्मण ने अपने जीवन भर की पूंजी को इसमें लगाया था। बडे़ नेता, अफसर इस रेस्तरां में जाते। मुफ्त का खाना खाते, मुंह पोंछते और घर चले जाते। मैंने लक्ष्मण को कहा कि यह क्या कर रहे हो? वह मुस्कराता था, भैजी, प्रचार की कीमत चुकानी होगी।
त्रिवेंद्र सरकार थी। रावतों का बोलबाला था। एक दिन सचिवालय में लक्ष्मण मिल गया। माथे पर पसीना था। मैंने पूछा क्या हुआ, कोई सरकारी प्रोग्राम हुआ था। लाख से भी अधिक के बिल के भुगतान के लिए धक्के खा रहा था। किसी ने उसकी सुनी नहीं। मैं नहीं जानता कि उसे भुगतान मिला या नहीं। पत्रकार भी जाते और मुफ्त का खाते। मैंने भी उसके यहां तीन-चार बार मुफ्त का खाया। जब उसने मुझसे पैसे नहीं लिए तो मैंने वहां खाना खाना छोड़ दिया, हालांकि कोदे का शीतल पेय जरूर पीता।
लगभग छह-सात महीने ही बीते थे। एक दिन पहुंचा तो लक्ष्मण की रंगत उड़ी हुई थी। माथे पर शिकन थी और आवाज में दर्द। बोला, भैजी, देहरादून में 50 हजार पहाड़ी परिवार रहते हैं। यदि एक परिवार भी एक बार हमारे रेस्तरां में भोजन करने आ जाता तो मेरा रेस्तरां चल जाता। लोगों ने दुष्प्रचार कर दिया है कि गढ़भोज महंगा है। बहुत घाटा हो रहा है।
मैं समझ रहा था। हिसाब लगाने की नाकाम कोशिश कर रहा था कि 50 हजार परिवार को 365 दिन में भाग दें एक परिवार का कितने साल बाद गढ़भोज में नंबर आएगा। खैर, हम पहाड़ी गढ़भोज में नहीं गये और गढ़भोज बंद हो गया।
आज दोपहर को पता लगा कि लक्ष्मण रावत का निधन हो गया। 50 से भी कम उम्र रही होगी। एक कर्मठ पहाड़ी इस दुनिया से यूं ही चला गया। 18 साल की उम्र में उसके पिता का साया छिन गया था। परिवार की जिम्मेदारी संभाली। दिल्ली में ढाबा चलाया। मुबई में मेहनत मजदूरी की। वहां से कुछ कमाया तो रुद्रप्रयाग आ गया। टेलीफोन कम्युनेकेशन का छोटा सा व्यसाय शुरू किया। ग्राम प्रधान रहा और फिर देहरादून में रियल इस्टेट कारोबार किया। पहाड़ियों की हमेशा मदद की लेकिन पहाड़ियों ने उसकी क्या मदद की? यह एक बड़ा सवाल है।
मैं तब बहुत व्यथित होता हूं कि जब हम एक गढ़वाली नौकर के विज्ञापन पर ‘इज्जत‘ का ढोंग करते हैं। लेकिन तब हम अपना हाथ उस पहाड़ी की ओर नहीं बढ़ाते, जब उसे सहारे की जरूरत होती है। हम बेकार का पहाड़ी होने का ढोंग करते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो संभव है कि लक्ष्मण रावत असमय ही यूं विदा न होता। लक्ष्मण का यूं जाना बहुत अखर रहा है। अपनी माटी और थाती को समर्पित लक्ष्मण रावत को विनम्र श्रद्धांजलि।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

तो इसलिए मेयर के खिलाफ खबर नहीं छापते बडे़ अखबार

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