- लोक संपत्ति की धारा की प्रकृति गंभीर
- हिंसा के लिए पुलिस-प्रशासन भी दोषी
बात 1994 की है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन चल रहा था। मैं डीयू से ग्रेजुएशन कर रहा था। राज्य आंदोलन चरम था तो पीछे कैसे रहता। करियर की परवाह न कर आंदोलन में कूद गया। अलग-अलग मामलों में तीन केस बन गये। एक में जमानती पूर्व अपर महाअधिवक्ता एडवोकेट अवतार रावत भी थे। आंदोलन ठंडा पड़ा लेकिन मेरी मुश्किलें बढ़ गयी। पोस्ट ग्रेजुएशन के फाइनल पेपर थे। एक पेपर जिस दिन था, तीस हजारी में कोर्ट डेट पड़ गयी। क्या करूं? जज साहब सरदार जी थे और मेरा वकील मेरे ही कालेज का सीनियर। सरदार जी मान गये तो भी पेपर में आधे घंटे की देरी से बैठा। पास तो हो गया लेकिन परसेंटेज प्रभावित तो हुई ही। खैर, पीछा यही नहीं छूटा। पत्रकारिता के दौरान भी चाहे हरियाणा रहा, चंडीगढ़ रहा या दिल्ली रहा। हर बार कोर्ट की डेट पर कभी तीस हजारी तो कभी पटियाला हाउस कोर्ट के चक्कर लगते रहे। सात साल तक कोर्ट-कचहरी होती रही। यानी 2001 में केसों से पीछा छूटा।
मैं अपराधी नहीं था, तब स्टूडेंट था और राज्य आंदोलन में भागीदारी कर रहा था। मैं यह किस्सा इसलिए सुना रहा हूं कि उत्तराखंड पुलिस ने 13 युवाओं को जेल भेज दिया है। संपत्ति का नुकसान गंभीर धारा है। यदि सरकार युवाओं को भला चाहती है तो फिर सरकार को चाहिए कि वह सभी केस वापस लें। गलती स्टूडेंट से अधिक उत्तराखंड पुलिस की है। प्रशासन की है। जब दोनों गलत हैं तो सजा केवल बेरोजगार युवाओं को क्यों?
मैं सीएम धामी से अपील करता हूं कि युवाओं के हित में बेरोजगारों पर लगे सभी केस वापस लिए जाएं या उन पुलिसवालों को भी जेल भेजा जाएं, जिन्होंने युवाओं के साथ अभद्र व्यवहार किया था।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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