विद्रोहियों और पागलों के ‘भामाशाह‘ दीपू भाई

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  • स्वार्थ की इस बस्ती में उसने बनाया एक अलग आशियाना
  • पहाड़ को आबाद करने की हसरत में सड़कों पर गाता है आजादी के गीत

74, टैगोर विला। देहरादून ही नहीं प्रदेश के समस्त पागलों और विद्रोहियों की शरणस्थली है। यहां एक भामाशाह है यानी आपका सकलानी यानी दीपू भाई। जो इन पागलों और विद्रोहियों को आर्थिक, सामाजिक और नैतिक सहयोग देता है। विद्रोही और पागल छोटे-छोटे सपनों को साकार करने में जुटे हैं। उन्हें लगता है कि उनके चिल्लाने से सत्ता के सुर बदल जाएंगे। जनता जागरूक हो जाएगी और पहाड़ आबाद हो जाएंगे। ऐसे पागलों को लगता है कि राज्य गठन के 21 साल बाद ही सही, समझदार लोगों को समझ में आ सकेगा कि क्या सही है और क्या गलत? एहसास हो सकेगा कि हमने राज्य में भस्मासुरों को अपने सिर पर बिठा लिया है और अब उन्हें उतार फेंकने का वक्त है। पागल और विद्रोही सड़कों पर गाते हैं, सचिवालय और विधानसभा के बाहर चिल्लाते हैं कि गंूगी-बहरी सरकार तक उनकी आवाज पहुंच जाएं।
भला मदमस्त हाथी किसी की सुनता है क्या? सत्ता के मदमस्त हाथी तो जल, जंगल और जमीन को तबाह कर रहे हैं। पागल और विद्रोही खुद भूखे पेट हैं लेकिन जनता और पहाड़ की खुशहाली के सपने देखते हैं। जनकांक्षाओं की उपेक्षा और प्रदेश की बदहाली पर जोर से चिल्लाते हैं। लेकिन भूखे पेट भला आवाज में दम कहां से आएगा?
तब दीपू भाई ऐसे ही पागलों की मदद के लिए खुद सड़क पर आते हैं। जोर-जोर से गाते हैं। आजादी, खुशहाली के गीत। वो सत्ता से सवाल पूछते हैं कि ये कैसी राजधानी है? गांव में हल क्यों टंगे हैं? मजदूर को रोटी क्यों नहीं मिल रही है। बच्चे क्यों कुपोषित हैं? दीपू भाई का दिल दूसरों के लिए पसीज जाता है। कोरोना काल रहा हो या सामान्य दिन। दीपू भाई अपनी नेक कमाई, कीमती वक्त और नेकनीयत से जनहित में जुटे हैं।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं दीपू भाई।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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